देश को आजाद कराने में स्वतंत्रता सेनानियों ने अहम भूमिका निभाई थी। आज भी जो स्वतंत्रता सेनानी जीवित हैं वो गौरव गाथा सुनाने में आज भी गर्व महसूस करते हैं। सुनिए इन सेनानियों से
Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!पटना/जौनपुर [जेएनएन]। आजादी के सिपाही सीताराम सिंह अपने जीवन के सौ बसंत पार कर चुके हैं। स्वतंत्रता दिवसकी बात करते ही आंखें भर आती हैं। कहते हैं, सात दशक बाद भी देश को पूर्ण आजादी नहीं मिली है। सामाजिक और आर्थिक सुधार के लिए अगस्त क्रांति की तरह एक और क्रांति की जरूरत है।
अगस्त 1942, भारत छोड़ो आंदोलन
महात्मा गांधी के आह्वान पर वैशाली, बिहार के महुआ निवासी युवा सीताराम सिंह आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। 11 अगस्त 1942 को साथियों के साथ उनकी गिरफ्तारी हुई। हाजीपुर जेल में बंद किया गया। वह बताते हैं, जेल में कर्मी सखीचंद से कागज का टुकड़ा मांगा। उस पर लिखा, 12 बजे बैरक खोलता है। मैदान में सभी कैदियों को खाना खिलाता है, आ जाओ। कागज के टुकड़े को पत्थर में लपेटकर बाहर फेंक दिया।
जेल सड़क के किनारे ही थी। टुकड़ा साथियों को मिल गया। 14 अगस्त को दस हजार की संख्या में आंदोलनकारियों ने धावा बोल दिया और जेल तोड़कर हम सभी फरार हो गए। नेपाल चले गए और वहां, आर्म्ड दस्ते की ट्रेनिंग लेने लगे। इसी दौरान वहां डॉ. राम मनोहर लोहिया एवं जयप्रकाश नारायण आए। लेकिन, दोनों को वहां गिरफ्तार कर लिया गया। नेपाल के हनुमान नगर की जेल में कैद किया गया। हम 30 की संख्या में आर्म्ड दस्ते के जवान थे। योजनाबनी कि लोहिया और जेपी को छुड़ाना है। हमलोग 21 की संख्या में आम्र्स के साथ तैयार हुए। रात के डेढ़ बजे जेल पर धावा बोल दिया। दोनों ओर से गोलियां चलीं। पुलिस के कई जवान मारे गए। कई साथियों को भी गोली लगी।
मेरे पैर में गोली लगी। इसी बीच सिपाही ने सीने में संगीन घोंप दिया। हार नहीं मानी। लोहिया और जेपी को मुक्त कराया। कुछ दिनों बाद पकड़े गए। अंडमान में काला पानी की सजा दी गई। इससे पहले कई जेलों में भी कैद कर रखा गया।
बकौल सीताराम, बात 1945 की है। अपने साथियों के साथ बक्सर जेल में कैद थे। 22 वर्ष 3 माह की सजा हुई थी। अंग्रेज अफसर रेविंक्शन ने मेरे बारे में तख्ती पर लिख दिया, मोस्ट डेंजरस एंड डेसपरेट (बेहद ही खतरनाक और उग्र)। जेल परिसर में नींबू के बगान में ले जाकर बूट से (जूतों से) मारा जाता था।
उत्तरप्रदेश से जंग-ए-आजादी में योगदान देने वाले कुल 474 स्वतंत्रता सेनानियों में से अब सिर्फ तीन बनारसी,राम, ब्रह्मदेव वर्मा व बांकेलाल तिवारी हमारे बीच हैं। ये आज भी बड़े गर्व के साथ स्वाधीनता संग्राम की आंखों देखी गाथाएंसुनाते हैं।
साथ ही वर्तमान हालात से वे व्यथित नजर आते हैं। सौ वर्ष के होने जा रहे बनारसी राम बताते हैं, बचपन में ही सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। भटकते-भटकते दिल्ली पहुंच गए। कोई साहब मुझे मिले, जो अपने साथ लेकर रंगून चलेगए। उनके घर काम करने लगा।
1942 में बमबारी हो गई, जिसमें अफसर व उनके परिवार की मौत हो गई। इसी दौरान किसी ने आजाद हिंद फौज की भर्ती की सूचना दी। जियाबाड़ी स्थित आजाद हिंद फौज के सेंटर पर पहुंच गया। वहां नेताजी ने मेरी कम उम्र देखते ही फौज में भर्ती करने से इन्कार कर दिया, जिस पर रोने लगा तो उन्होंने फौज की सेवा के लिए भर्ती कर लिया।
पंडित बांके बिहारी तिवारी भी कम उम्र में ही जंगे आजादी में कूद गए थे। वे बताते हैं कि 20 अगस्त 1942 को करंजाकला डाकखाना लूटने व उसकी इमारत ढहाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। ब्रह्मदेव वर्मा 17 वर्ष की आयु में स्वतंत्रताके लिए मुखर हो गए। 12 अगस्त 1942 को छात्रों के साथ वे भी जेल के मुख्यद्वार पर तिरंगा फहराने पहुंचे जहां पुलिस संघर्ष के बीच लाठी चार्ज और फायरिंग हुई। वे इस समय 102 साल के हो चुके हैं, किंतु आजादी की बात शुरू होते ही काफी भावुक हो उठते हैं।