करगिल युद्ध में दुश्‍मन के दांत खट्टे् करने वाले इन सूरमाओं को मिला था ‘परमवीर चक्र’

Defense

करगिल युद्ध में अपने अदम्य साहस और जांबाजी के बल पर दुश्मन के छक्के छुड़ाने चार शहीदों को मरणोपरांत सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

Thank you for reading this post, don't forget to subscribe!



लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय
लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडेय का जन्म 25 जून 1975 को उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर जिले के रुधा गांव में हुआ था। वे बतौर कमीशंड ऑफिसर 1/11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन में भर्ती हुए। उनकी तैनाती कश्मीर घाटी में हुई। पांडेय को निर्णायक युद्ध के लिए 2-3 जुलाई 1999 को कूच किया जब उनकी बटालियन की बी कंपनी को खालूबार को फतह करने का जिम्मा सौंपा गया। मनोज पांचवें नंबर के प्लाटून कमांडर थे और उन्हें इस कंपनी की अगुवाई करते हुए मोर्चे की ओर बढ़ना था। जैसे ही यह कंपनी बढ़ी वैसे ही उनकी टुकड़ी को दोनों तरह की पहाड़ियों की जबरदस्त बौछार का सामना करना पड़ा। वहां दुश्मन के बंकर बाकायदा बने हुए थे।


अब मनोज का पहला काम उन बंकरों को तबाह करना था। उन्होंने तुरंत हवलदार भीम बहादुर की टुकड़ी को आदेश दिया कि वह दाहिनी तरफ के दो बंकरों पर हमला करके उन्हें नाकाम कर दें और वह खुद बाएं तरफ के चार बंकरों को नष्ट करने का जिम्मा लेकर चल पड़े। मनोज ने निडर होकर बोलना शुरू किया और एक के बाद एक चार दुश्मन को मार गिराया। इस कार्रवाई में उनके कंधे और टांगे तक घायल हो गई अब वह तीसरे बंकर पर धावा बोल रहे थे। अपने घावों की परवाह किए बिना वह चौथे बंकर की ओर बढ़े।



उन्होंने जोर से गोरखा पल्टन का हल्ला लगाया और चौथे बंकर की ओर एक हैंड ग्रेनेड फेंक दिया। तभी दुश्मन की एक मीडियम मशीन गन से छूटी हुई होली उनके माथे पर लगी। उनके हाथ से फेंके हुए ग्रेनेड का निशाना अचूक रहा और ठीक चौथे बंकर पर लगा उसे तबाह कर गया लेकिन मनोज कुमार पांडे भी उसी समय धराशायी हो गए।


मनोज कुमार पांडेय की अगुवाई में की गई इस कार्यवाही में दुश्मन के 11 जवान मारे गए और छह बंकर भारत की इस टुकड़ी के हाथ आ गए। उसके साथ ही हथियारों और गोलियों का बड़ा जखीरा भी मनोज की टुकड़ी के कब्जे में आ गया। उसमें एक एयर डिफेंस गन भी थी। 6 बंकर कब्जे में आ जाने के बाद तो फतह सामने ही थी और खालूबार भारत की सेना के अधिकार में आ गया था।


कैप्टन विक्रम बत्रा
कैप्टन विक्रम बत्रा का जन्म हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के पालमपुर में 9 सितंबर 1974 को हुआ था। इन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पालमपुर में डीएवी स्कूल, फिर सेंट्रल स्कूल में प्राप्त की। 12वीं पढ़ाई पूरी करने के बाद विक्रम डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक किया। इसके बाद उनका चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर में सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली।



पहली जून 1999 को उनकी टुकड़ी को करगिल युद्ध में भेजा गया। हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।




शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष ‘यह दिल मांगे मोर’ कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें ‘करगिल का शेर’ की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।




अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिए लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गए थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और वे ‘जय माता दी’ कहते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अदम्य साहस और पराक्रम के लिए कैप्टन विक्रम बत्रा को 15 अगस्त 1999 को परमवीर चक्र के सम्मान से नवाजा गया जो उनके पिता जीएल बत्रा ने प्राप्त किया।



राइफलमैन संजय कुमार
राइफलमैन संजय कुमार का जन्म 3 मार्च, 1976 को विलासपुर हिमाचल प्रदेश के एक गांव में हुआ था। मैट्रिक पास करने के तुरंत बाद वह 26 जुलाई 1996 को फौज में शामिल हो गए। करगिल युद्ध के दाैरान संजय 4 जुलाई 1999 को फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 की ओर कूच करने के लिए राइफल मैन संजय ने इच्छा जताई की कि वह अपनी टुकड़ी के साथ अगली पंक्ति में रहेंगे।


संजय जब हमले के लिए आगे बढ़े तो एक जगह से दुश्मन ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और टुकड़ी का आगे बढ़ना कठिन हो गया। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को देखते हुए संजय ने तय किया कि उस ठिकाने को अचानक कमले से खामोश करा दिया जाए। इस इरादे से संजय ने एकाएक उस जगह हमला करके आमने-सामने की मुठभेड़ में तीन दुश्मन को मार गिराया और उसी जोश में गोलाबारी करते हुए दूसरे ठिकाने की ओर बढ़े।


राइफल मैन इस मुठभेड़ में खुद भी लहूलुहान हो गए थे, लेकिन अपनी ओर से बेपरवाह वह दुश्मन पर टूट पड़े। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने वह गन भी हथियाई और उससे दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया।



संजय के इस चमत्कारिक कारनामे को देखकर उसकी टुकड़ी के दूसरे जवान बहुत उत्साहित हुए और उन्होंने बेहद फुर्ती से दुश्मन के दूसरे ठिकानों पर धावा बोल दिया। इस दौर में संजय कुमार खून से लथपथ हो गए थे लेकिन वह रण छोड़ने को तैयार नहीं थे और वह तब तक दुश्मन से जूझते रहे थे, जब तक वह प्वाइंट फ्लैट टॉप दुश्मन से पूरी तरह खाली नहीं हो गया। इस तरह राइफल मैन संजय कुमार ने अपने अभियान में जीत हासिल की।


ग्रिनेडियर योगेंद्र सिंह यादव
सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेंद्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेंद्र की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए। उनके पिता भी करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूं रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था।



करगिल युद्ध में योगेंद्र का बड़ा योगदान है। उनकी कमांडो प्लाटून ‘घटक’ कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था।


इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेंद्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियां उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गंभीरता को समझकर योगेंद्र ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेंद्र लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊंचाई के साठ फीट और बचे थे।



उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी की और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आकर मिल गई।



आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फतह हो गया था और उसमें योगेंद्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह ने परमवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।